अच्छे कामों की भी कोई जात होती है? बुरे कामों का संप्रदाय-धर्म होता है कि नहीं, यह तो वे बताते रहते हैं, जो धार्मिक आतंकवाद का वैश्विक सांगठनिक उद्घोष करते हैं। अभी जब कैलाश सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई को एक साथ शांति का नोबेल दिया गया, तो पार्श्व संगीत कुछ इस तरह का बजाया गया है, जैसे एक मुसलमान और एक हिंदू साथ-साथ मिलकर, आपस में लड़ने वाले दो देशों के दो ऐसे प्रतिनिधि के रूप में आपके सामने रखे जा रहे हैं, जो बच्चों के जरिये शांति का वैश्विक संकेत समझा सकें।
ध्वनि ऐसी निकलती है, जैसे सत्यार्थी एक हिंदू हैं। भारत में एक हिंदू रहता है। वह बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ता है। वह उनके सपनों की दुनिया बनाने के लिए उन्हें एक निर्भय संसार की राह दिखाता है। दूसरी तरफ मलाला तो मुसलमान हैं ही, क्योंकि पाकिस्तान की स्
वात घाटी के तालिबान को इस्लामी लड़कियों का स्कूल जाना भी मंजूर नहीं। इन तालिबान के खिलाफ मलाला साहसी संदेश देने निकली है।
उम्मीद की जा रही है कि इससे हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी या प्रकारांतर से हिंदू-मुसलमान शांति का सबक लेंगे। यहां संदेह की एक महीन रेखा है। 1947 का विभाजन भले ही सांप्रदायिक रहा हो, हिंदुस्तान का मतलब हिंदू धर्मराज्य नहीं है। और सत्यार्थी ने जब बच्चों के लिए आजादी का आंदोलन चलाया, तो यह सोचकर नहीं चलाया था कि एक ‘सच्चे हिंदू’ को ऐसा करना चाहिए। हां, पाकिस्तान अवश्य घोषित मुस्लिम राष्ट्र है, लेकिन वहां की मलाला ने भी अपना साहस एक ‘सच्ची मुसलमान’ बच्ची के विचार से नहीं, उच्च मानवीय आकांक्षा के सहज स्वप्न से अंगीकार किया था। अगर ऐसा न होता, तो बहुत-सी कट्टरपंथी ताकतों को मलाला आंखों में चुभ न रही होती। और, कहना बेकार है कि पाकिस्तान में ऐसी ताकतों का प्रतिशत कितना बड़ा है। मलाला उस धारा के विरुद्ध खड़ी है।
जब कोई अलंकार इस भाव से प्रस्तुत किया जाता है कि वह आपको खास किस्म की सीख देगा, तो सावधान रहने को मन करता है। अमन की आशा उच्चतर मानवीयता का स्वप्न है। इसके लिए सत्यार्थी का हिंदू और मलाला का मुसलमान होना जरूरी नहीं है। हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच लंबे और गहरे राजनीतिक तनावों का इतिहास है। इसका अर्थ यह नहीं है कि एक वैश्विक संगठन संवेदनाओं को धार्मिक और सीमागत तनावों की पहचान से रेखांकित करने में गौरव दिखाए। यह उन संवेदनाओं तथा मूल्यों को लघुतर करने का प्रयास बनकर रह जाएगा, जिनके लिए अभी सचमुच सभी गौरवान्वित हैं।
नोबेल पुरस्कारों की पश्चिमी राजनीतिक गतिकी को समझना हो, तो इरविंग वालेस का ‘द प्राइज’ जरूर पढ़ा जाना चाहिए। एक पुरस्कृत नाम के पीछे कितने ही संदर्भ होते हैं। एक नाम सिर्फ संज्ञा ही नहीं, सर्वनाम, विशेषण और समास भी हो जाता है। वह एक बीजसूत्र ही होता है। उसकी टाइमिंग तथा निष्पत्ति का विचार एक लंबा काम है। गांधी के रास्ते पर चलने की तारीफ पाए खुद सत्यार्थी की पहली प्रतिक्रिया में है, ‘यह पहले गांधी को मिलना था।’
इसीलिए सत्यार्थी की तपस्या को एक हिंदू की तपस्या और मलाला के संघर्ष को एक मुसलमान का संघर्ष रूपांकित करते हुए दो देशों की भौगोलिक-राजनीतिक स्थितियों का चित्र प्रस्तुत करने की मासूमियत प्रेम तथा शांति की कामना के मौलिक विचार के साथ खेल लगती है।
मलाला एक साहसी कन्या है, जिसने संघर्ष की शक्ति दिखाई है, चाहे वह किसी धर्म की हो। सत्यार्थी एक स्वप्नशील आंदोलनकारी हैं, जिन्होंने व्यवस्था के साथ सतत संघर्ष किया है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों। दोनों के काम से प्रेम और संघर्ष की शक्ति प्राप्त करना भारत-पाक सीमा से परे दुनिया के हर सपने देखते बच्चे की चाह है।
‘एक हिंदू, एक मुस्लिम’ और एक ‘भारतीय, एक पाकिस्तानी’ के मुहावरे से ‘साझा संघर्ष’ या ‘सांप्रदायिक सौहार्द’ की पट्टी पढ़ाने से दोनों का संघर्ष छोटा हो जाता है।
बाल शोषण के विरुद्ध सत्यार्थी जो काम कर रहे हैं, शायद कराची के कारखानों में उसकी जरूरत कम न होगी। तालिबान द्वारा लड़कियों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करने की कुख्यात क्रूर शैलियां, हिंदुस्तान के दूरदराज के इलाकों में रूप बदलकर दिख ही सकती हैं। इनमें मलाला जैसा साहस काम आएगा। और, यह सब रंग दुनिया के बाकी हिस्सों में भी उसी तरह रंगत देगा।
अंत में, एक पुराने श्लोक का अर्थ यों है – ‘जो पंछी सैकड़ों योजन से भी अधिक दूर से छोटे से अन्न के दाने को या मांस को देख लेता है, वही वक्त आने पर शिकारी के बिछाए जाल की बड़ी गांठ नहीं देख पाता।’
हम खुश हैं कि एक आसमान को चीन्हा गया है। हम बधाई देते हैं कि साहस को सलाम किया गया है। लेकिन बात यहां खत्म नहीं होती। बात शुरू होती है। इस शुरुआत को सच्चे अर्थों में शुरू होना चाहिए।
सत्यार्थी और मलाला, सुन रहे हैं न!
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