आदतन अपराधियों की तरह लेखन के इलाके में सक्रिय रहना, खतरनाक बात है। पर फूल खिलते हैं, यह भी एक सच है और लोग लिखते हैं,यह भी उतना ही बड़ा सच है। और, कभी-कभी लिखे से फूल खिलते हैं, यह उससे भी सुंदर सत्य है।
हर रविवार जब ‘नमस्कार’ के लिए लिखने बैठता हूं तो लगता है, आज लिखना मुश्किल होगा। जो वजहें होती हैं, पहली क्या लिखें? दूसरी – क्या न लिखें? आप अगर न लिखें, तो किसी का कुछ बिगड़ नहीं जाएगा और अगर आप लिख दें, तो सवाल उठता है कि किसका कुछ बिगड़ता है? यह बड़ी भयावह बात है। आप लिखें और उसका कुछ मतलब न हो! पर चूंकि आप लिखने के सिवा कुछ नहीं कर सकते, इसलिए लिखते हैं तो कहा जाता है कि ऐसे मजबूर लेखन से चाय की गुमटी ही भली! कुछ लोग अपनी रचना प्रक्रिया पर इतना लंबा प्रवचन देते हैं कि लगता है वे एक पंक्ति लिखकर इंसानियत पर एक हजार मीटर लंबा एहसान करने जा रहे थे। अब तक उन्होंने इतना एहसान कर दिया होगा कि जनता की अगली तीन पीढ़ियां उसके बोझ तले कराहती रहेंगी।
दिलचस्प बात है। लिखें आप और उम्मीद ऐसी कि वह जनता पर कर्ज की तरह चढ़ जाए। जनता को पता चले कि वह आपने कविता लिखी, आपने कहानी लिखी, आपने आलोचना लिखी और वह स्टाम्प पेपर पर छपी कृपा हो गई।
जनता को आपके लेखन की कृपा चाहिए या आप अपनी आत्मा की शांति के लिए उसके कृपाकांक्षी हैं? जाहिर है, शांति के खाते में कृपा का धंधा ज्यादा सूट करता है। आप बजट पर ऐसे लिखेंगे कि जैसे किसी गरीब को कविता का कपड़ा ओढ़ा रहे थे और वित्त मंत्री वह कपड़ा चुरा कर भाग गया। अब आप कविता की एफआईआर करा रहे हैं।
आदतन अपराधियों की तरह लेखन के इलाके में सक्रिय रहना, खतरनाक बात है। पर फूल खिलते हैं, यह भी एक सच है और लोग लिखते हैं, यह भी उतना ही बड़ा सच है। और, कभी-कभी लिखे से फूल खिलते हैं, यह उससे भी सुंदर सत्य है।
अभी हमारे एक साथी ने शंभू राणा की किताब पढ़ने को भेजी। शंभू राणा को कोई क्यों जाने? मैं पहाड़ और खासकर अल्मोड़ा को क्यों जानूं? क्योंकि जानने के बाद पता चलता है कि लिखने वाले कितने किस्म के हो सकते हैं। इन किस्मों में भी कहीं कोई साझा होता है। यह साझा विचित्र और अमूल्य के बीच संवेदना का मीटर बना देता है। पता चलता है कि इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से साहित्य समाज को प्रवचन देने भर की कसरत से ऊपर भी कोई चीज होती है, जिससे ‘मन की देह’ बनती है। तो, राणा साहब आठवीं तक पढ़े हैं। बताया गया है कि उनके एक पैर में शायद ज्यादा कमजोरी भी है। छोटे से कमरे में सोलर लालटेन के भरोसे रोशनी चला ले जाते हैं। काम शायद कभी छोटा-मोटा कुछ बेचने निकल पड़ना (जैसे मूंगफली) या कभी बाजार में वजन तौलने की मशीन लेकर बैठ जाना। बस! मगर दुनिया को निर्विकार भाव से देखना और लिखना – यही खब्त सही।
‘माफ करना हे पिता’ की पुकार उसकी भूमिका भी है और जीवन की तलाश की शुरुआत भी। बाप, शराब, लॉटरी, सिगरेट, मौत, ब्राह्मणी, कार, सरकार, मदारी और दवाफरोश। लिखने और देखने के लिए जो भी है, उस पर हृदय की दृष्टि, तर्क की संगति और विचार का सातत्य। अगर एक खब्ती और मामूली औपचारिक शिक्षा से जीवनानुभव का ऐसा समां बांधा जा सकता है, तो हमारे अंगरेजी के उद्धरण दे-देकर हांफ रहे लिक्खाड़ों ‘क्रिएटिव फ्रस्ट्रेशन-डिप्रेशन’ का हिसाब नए सिरे से करना पड़ेगा। क्या जीवन को निरे आलस्य, नितांत उचक्केपन और असंभव संचालन से साधा जा सकता है? क्या सारी चीजें सिर्फ एक-दूसरे के भरोसे हैं, उन्हें चीन्हना और संबोधित करना स्वयमेव संभव हो जाता है?
लगता है, दूसरी चीज कुछ ज्यादा काम की है। पर मुसीबत यह है कि सरकार बदलती है, तो ऊंचे साहित्यकार को भी तबादले की फिक्र, कविता से ज्यादा होती है। लिखने से सिर्फ इमेज मैनेजमेंट होता है। असल चीज तो जिंदगी का कारोबार है। उस इमेज से, तबादले की क्रांति हो जाए तो कविता काम की हुई!
मैंने जैसे कि शुरू में कहा, मामला लिखने का है। एक आम आदमी को हजार गम होते हैं। लिखने वाले को भी होते हैं। हां, उसे अपने गम का गीत गाना आता है। पर सिर्फ इतने भर से काम कहां चलता है? उस चीज की रिकॉर्ड बिक्री का हुनर भी साधना आना चाहिए। सो, जो दिल्ली में बैठे, वह एचएमवी बना ले, जो अल्मोड़ा में बैठे वो क्या बनाए?
भीतर से आवाज आती है, वह न गीत का रिकॉर्ड बनाने बैठा है, न बिक्री का। वह जो है, सो है। इससे बढिय़ा बात क्या हो सकती है?
सो, मैंने भी कॉलम लिख ही दिया। बजट, कांग्रेस, भाजपा, सोनिया, मोदी, केजरीवाल, डीजल, पेट्रोल, प्याज सब हो लिए। कॉलम के लिए और भी गम हैं, राजनीति के सिवा!
*और अंत में ………
“जहां तक अपनी गलतियों का सवाल है, हम से अच्छा वकील कौन होगा और दूसरों की गलतियों पर हमसे बड़ा जज कौन?” (मोहित महाजन ने भेजा)
Comments